नमस्कार दोस्तों मैं Shubham आप सभी
का स्वागत करता
हु इस Blog पे।
हमेशा की तरह
एक नए Article के साथ
आपके लिए हाजिर
हु। दोस्तों अक्सर
कहा जाता है की नारी
देवी सामान होती
है, वह आदिशक्ति होती है। बिलकुल उसी तरह जब मैंने भारत
देश की पहिली
महिला अध्यापिका "सावित्रीबाई फुले" इनके बारे
में पढ़ा तो सच बताऊ
दिल से अहसास
हुआ की आज भारतीय महिलाये बहुत खुशनसीब है क्योकि सावित्रीबाई फुले की कारकीर्द में उन्होंने बहुत
से आंदोलन और जंग छेड़ी
है जिस वजह
से भारतीय महिला
आज सुकून से पढ़ पा रही है।
चलिए ज्यादा समय
न लेते हुए
उनके बारे मे मैं आपको
कुछ बाते बताऊंगा जो उन्होंने अपने
जीवन में अनुभव
की थी और भारतीय महिला
समाज में परिवर्तन लाया था।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 January 1831 में महाराष्ट्र के सातारा जिल्हे में स्थित नायगाव में हुआ था। पिता का नाम खंडोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। बहुत ही छोटी उम्र में ही उनका विवाह श्री महात्मा जोतिबा फुले से हुआ। एक पति का कार्य जोतिबा फुले ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर यानी सावित्रीबाई को Support करते हुए छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल विवाह तथा विधवा विवाह ना करना इन सब बातो का निषेध करते हुए बहुत ही बहखूबी से निभाया है। इन सब पुरानी प्रथाओं को हमेशा के लिए मिटाया है। जोतिबा का सहयोग सावित्रीबाई को शुरुआत से ही रहा था। सावित्रीबाई देश की पहली महिला अध्यापिका और नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थी। सावित्री बाई फुले एक दलित परिवार में जन्मी थी, लेकिन उन्होंने उन्नीसवी सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत की। उस समय भारत देश में उच्च जातियों का वर्चस्व अधिक प्रमाण में था उनके बने बनाए In-practical नियमो को सावित्रीबाई ने सीधी चुनौती दी। उस वक्त सामाजिक बुराईया किसी प्रदेश में सिमित न होकर पुरे भारत देश में फ़ैल चुकी थी।
महात्मा जोतिबा फुले द्वारा अपने जीवन काल
में किये गए कार्यो में
उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई का योगदान काफी
महत्वपूर्ण रहा। लेकिन
सूत्रों के अनुसार फुले दांपत्य का सही तरीके
से लेखा-जोखा
नहीं किया गया।
भारत के पुरुष
प्रधान समाज ने शुरू से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं
किया की नारी
भी मानव है और पुरुष
सामान है, पुरुष
के सामान उसे
भी बुद्धि है और उसका
भी स्वातंत्र्य व्यक्तिमत्व है। उन्नीसवीं सदी
में नारी गुलाम
रहकर समाजिक व्यवस्था की चक्की ही पिसती रही।
अज्ञानता के अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद,जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन
तथा सतीप्रथा आदि
कुप्रथाओ में केवल
नारी ही व्यथित थी लोग भी यही कहते
थे की नारी
पिता, भाई, बेटे
के सहारे बिना
जी नहीं सकती।
उन्नीसवीं सदी के भारतवासियो ने
नारी को कामवासना पूर्तति का साधन
माना था और नारी जाती
के सन्मान को हनन करने
की कोशिश की थी। भारतवर्ष में उन्नीसवीं सदी
में नारी की जितनी अवहेलना हुई उतनी कही
नहीं हुई हालांकि सब धर्मो में
नारी का सम्बन्ध केवल पापो से ही जोड़ा
गया। उस समय
नैतिकता का और सांस्कृतिक मूल्यों का पतन हो रहा था।
हर कुकर्म को धर्म के आवरण से ढक दिया
जाता था। लोगो
के नुसार नारी
को शिक्षा का और विद्या ग्रहण करने का कोई अधिकार नहीं था उलटा
यह कहा जाता
था की नारी
को शिक्षा मिलेगी तो वह कुमार्ग पर चलेगी, जिससे
घर का सुख-चैन नश्ट
हो जाएगा। उसी
समय महात्मा फुले
ने समाज की रूढ़िवादी परम्पराओ से विरुद्ध जाते
हुए कन्या विद्यालय शुरू की।
भारत में नारी शिक्षा के लिए किये गए पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के निचे विद्यालय शुरू किया। ताकि स्त्री शिक्षा की सबसे बड़ी प्रयोगशाला भी थी। जिसमे खुद सावित्री बाई फुले और सगुणाबाई क्षीरसागर थी।
(यह point मुझे काफी रोचक लगा की लोग हमेशा बोलते है की ये फलाना होना चाहिए - वो होना चाहिए लेकिन सबसे पहले शुरुआत खुद से होनी चाहिए ये लोग क्यों भूल जाते है पता नहीं। जैसे अभी आपने Read किया की खुद सावित्री बाई विद्यार्थिनी के रूप में पढ़ने लगी यानी आसान भाषा में कहना चाहु तो 'शुरुआत उन्होंने खुद से की फिर समाज को बदला।' लेकिन हमारे Case में हम हमेशा उलटा करते है हम बहार बदलना चाहते है लेकिन अंदर खुद वैसे के वैसे ही रह जाते है )
उन्होंने खेत में मिट्टी की टहनिया बना कर कलम बना कर शिक्षा लेने को प्रारंभ किया। और उसी प्रकार आगे जाकर सावित्रीबाई ने देश की पहली भारतीय स्त्री अध्यापिका बनाने का ऐतिहासिक गौरव हासिल किया। लोगो ने उन पर किचड़ फेका, अश्लील गालिया दी, धर्म डुबोने वाली कहा कई प्रकार के लांछन लगाए इतनाही नहीं उनपर पत्थर एंव गोबर तक फेका गया। सावित्रीबाई और जोतिबा फुले ने शूद्र और स्त्री शिक्षा की शुरुआत करते हुए एक नए युग की नींव रखी। इसलिए ये दोनों पति-पत्नी गौरव पाने के अधिकारी हुए। दोनों ने मिलकर सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस संस्था की काफी प्रचिती हुई और आगे चलकर सावित्रीबाई School की मुख्य अध्यापिका (Principal) के रूप में नियुक्त हुई।
1851 में पुणे रास्ता पेठ में लड़कियों का दुसरा School खोला और 15 मार्च 1852 में बुधवार पेठ में लड़कियों का तीसरा School खोला। उनकी बनाई हुई संस्था "सत्यशोधक" के माध्यम से 1876 और 1879 के अकाल में उन्होंने अन्न-वस्त्र इकठ्ठा कर के आश्रम में रहनेवाले 2000 बच्चो को खाना खिलाने की व्यवस्था की। 28 जानेवारी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की, जिसमे कई विधवाओं की प्रस्तुति हुई और कई बच्चो को बचाया गया। सावित्रीबाई द्वारा तब विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया जाता था। जिसमे नारी समाज की समस्या का सुल्लंघन भी किया जाता था औरन उनको हौसला भी दिया जाता था। इसी कार्य को बहखूबी से निभाते हुए श्री महात्मा जोतिबा फुले की मृत्यु 1890 में हुई और उनके मृत्यु के पश्च्यात उनके अधूरे कार्यो को पूरा करने का संकल्प सावित्रीबाई ने लिया था। और ठीक 7 साल बाद 10 मार्च 1897 में प्लेग के मरीजों की देखभाल करते हुए सावित्रीबाई की मृत्यु हुई।
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